उट्ठा है अब्र जोश का आलम लिए हुए बैठा हूँ मैं भी दीदा-ए-पुर-नम लिए हुए साक़ी की चश्म-ए-मस्त का आलम न पूछिए इक इक निगाह है कई आलम लिए हुए शबनम नहीं गुलों पे ये क़तरे हैं अश्क के गुज़रा है कोई दीदा-ए-पुर-नम लिए हुए तय कर रहा हूँ इश्क़ की दुश्वार मंज़िलें आह-ए-दराज़ ओ गिर्या-ए-पैहम लिए हुए उठ ऐ नक़ाब-ए-यार कि बैठे हैं देर से कितने ग़रीब दीदा-ए-पुर-नम लिए हुए सुनता हूँ उन की बज़्म में छलकेंगे आज जाम मैं भी चला हूँ दीदा-ए-पुर-नम लिए हुए मोती की क़द्र सब को है फूलों को देखिए क्या हँस रहे हैं क़तरा-ए-शबनम लिए हुए जोश-ए-जुनूँ में लुत्फ़-ए-तसव्वुर न पूछिए फिरते हैं साथ साथ उन्हें हम लिए हुए दिल की लगी न उन से बुझी आज तक 'जलील' दरिया हैं गरचे दीदा-ए-पुर-नम लिए हुए