वाँ कमर बाँधे हैं मिज़्गाँ क़त्ल पर दोनों तरफ़ याँ सफ़-ए-उश्शाक़ हैं ज़ेर-ओ-ज़बर दोनों तरफ़ ज़ुल्फ़ का सर-बस्ता कूचा माँग का रस्ता है तंग दिल तिरी शामत है मत जा बे-ख़तर दोनों तरफ़ दैर-ओ-काबा में तफ़ावुत ख़ल्क़ के नज़दीक है शाहिद-ए-मअ'नी का हर सूरत है घर दोनों तरफ़ है वो दरिया में नहाता मैं हूँ ग़र्क़-ए-आब-ए-शर्म कुछ अजब इक माजरा है तुर्फ़ा-तर दोनों तरफ़ इश्क़ वो है जिस के हाथों क़ुमरी ओ बुलबुल के आह ज़ेर-ए-सर्व-ओ-गुल पड़े हैं बाल-ओ-पर दोनों तरफ़ चश्म में क्या नूर है दिल में भी उस का है ज़ुहूर ज़ाहिर-ओ-बातिन वही है जल्वा-गर दोनों तरफ़ आमद-ओ-शुद में है देखी सैर-ए-बस्ती-ओ-अदम हम को इस मेहमाँ-सरा में है सफ़र दोनों तरफ़ शम्अ कुछ जलती नहीं परवाना भी देता है जी सोज़िश-ए-उल्फ़त से है जी का ज़रर दोनों तरफ़ पंजा-ए-मिज़्गाँ पे रख्खूँ क्यूँ न मैं दिल और जिगर नज़्र को लाया हूँ तेरी कर नज़र दोनों तरफ़ दिल में गर आता है तो आ जान-ए-मन आँखों की राह इस मकान-ए-दिल-कुशा के हैं ये दर दोनों तरफ़ कुछ हबाब ओ बहर में मत फ़र्क़ समझो ऐ 'नसीर' देखो टुक चश्म-ए-हक़ीक़त खोल कर दोनों तरफ़