वादा-ए-वस्ल है लज़्ज़त-ए-इंतिज़ार उठा और फिर उम्र भर इक ग़म-ए-ए'तिबार उठा उस का ग़म मेरे दिल में है अब बाँसुरी की तरह नग़्मा-ए-दर्द से ज़ख़्मा-ए-इख़्तियार उठा मैं उठा तो फ़लक से बहुत चाँद तारे गिरे और सहरा-ए-जाँ में बहुत ग़म-ए-ग़ुबार उठा कुछ रहा मेरे दिल में तो इक इज़्तिराब रहा मैं सदा अपनी ही ख़ाक से बे-क़रार उठा ऐ ख़ुदा रिज़्क़-ए-परवाज़ दे शहपरों को मिरे मेरे अतराफ़ से आसमाँ का हिसार उठा तू मुझे आसमाँ दे न दे बे-ज़मीन न कर दश्त-ए-जाँ से मिरे मौसम-ए-ताब-कार उठा या मिरी आँख से छीन ले सब ख़ज़ाना-ए-ख़्वाब या मिरी ख़ाक से ज़िंदगी का फ़िशार उठा