वहम ही होगा मगर रोज़ कहाँ होता है धुंध छाई है तो इक चेहरा अयाँ होता है शाम ख़ुश-रंग परिंदों के चहक जाने से घर हुआ जाता है दिन में जो मकाँ होता है वो कोई जज़्बा हो अल्फ़ाज़ का मोहताज नहीं कुछ न कहना भी ख़ुद अपनी ही ज़बाँ होता है बे-सबब कुछ भी नहीं होता है या यूँ कहिए आग लगती है कहीं पर तो धुआँ होता है बाज़-गश्त और सदाओं की उभर आती है जितना ख़ाली कोई 'अखिलेश' कुआँ होता है