वहम-ओ-गुमाँ जो हद से गुज़रते चले गए हम रेज़ा रेज़ा हो के बिखरते चले गए जल्वा तुम्हारा एक नज़र देखने के बा'द दिल में नुक़ूश-ए-इश्क़ निखरते चले गए ए'जाज़ कम नहीं था कुछ उन के जमाल का हम दीद की तलब में सँवरते चले गए दीं मंज़िलों ने उन को सदाएँ बहुत मगर दीवाने अपनी धुन में गुज़रते चले गए शायद मिरी वफ़ाओं में ही थी कोई कमी वा'दे से अपने वो तो मुकरते चले गए ऐसे परिंद जिन की उड़ानें बुलंद थीं उन के परों को लोग कतरते चले गए 'आरिफ़' रह-ए-हयात में नेकी के नाम पर जो काम हम को करने थे करते चले गए