वहम-ओ-गुमाँ में भी कहाँ ये इंक़िलाब था जो कुछ भी आज तक नज़र आया वो ख़्वाब था पा-ए-मुराद पा के वो बेहाल हो गया मंज़िल बहुत हसीन थी रस्ता ख़राब था चेहरे को तेरे देख के ख़ामोश हो गया ऐसा नहीं सवाल तिरा ला-जवाब था उस के परों में क़ुव्वत परवाज़ थी मगर उन मौसमों का अपना भी कोई हिसाब था आँखों में ज़िंदगी की तरह आ बसा है वो मेरी नज़र में पहले जो मंज़र ख़राब था जैसे हवा का झोंका था आ कर गुज़र गया वो शख़्स इस के बा'द कहाँ दस्तियाब था सारा कलाम उस से मुअ'नवन हुआ 'हयात' जिस का वजूद ख़ुद भी मुकम्मल किताब था