वही बे-लिबास क्यारियाँ कहीं बेल बूटों के बल नहीं तुझे क्या बुलाऊँ मैं बाग़ में किसी पेड़ पर कोई फल नहीं हुए ख़ुश्क बहर तो क्या हुआ मिरी नाव ज़ोर-ए-हवा पे है मिरे बादबाँ हैं भरे हुए सो बला से रेत में जल नहीं है दबाव अश्रा हवास पर हैं तमाम उज़्व खिंचे रबर हूँ उथल-पुथल से घिरा मगर मुझे इज़्न-ए-रद्द-ए-अमल नहीं किसी बे-ग़ुरूब निगाह से किसी ला-ज़वाल शुआ' में सभी ज़ावियों से अलग-थलग मुझे हल करो मिरा हल नहीं तिरी नींद से बड़ी आँख में मुझे ताबकार करे किरन मुझे ऐसी धात का क़ल्ब दे जिसे ख़ौफ़-ए-रद्द-ओ-बदल नहीं कहीं पानियों में बिछी न हो कभी साहिलों सी खुली न हो वो ज़मीं दे मेरे जहाज़ को जहाँ दूसरे की पहल नहीं सभी सर्द-ओ-गर्म इबारतें मिरे ख़ाल-ओ-ख़द का हैं ज़ाहिरा जिसे तख़लिए की अमीं कहूँ वो सुनाने वाली ग़ज़ल नहीं