वही फ़ुर्क़त के अंधेरे वही तन्हाई हो तेरी यादों का हो मेला शब-ए-तन्हाई हो मैं उसे जानती हूँ सिर्फ़ उसे जानती हूँ क्या ज़रूरी है ज़माने से शनासाई हो इतनी शिद्दत से कोई याद भी आया न करे होश में आऊँ तो दुनिया ही तमाशाई हो मेरी आँखों में कई ज़ख़्म हैं महरूमी के मेरे टूटे हुए ख़्वाबों की मसीहाई हो वो किसी और का है मुझ से बिछड़ कर 'सीमा' कोई ऐसा भी ज़माने में न हरजाई हो