वही मनाज़िर वही मुसाफ़िर वही सदा का जादा था जब उफ़्ताद पड़ी थी मुझ से मैं ही दूर उफ़्तादा था एक उम्मीद-ओ-बीम के आलम में बस्ती दम साधे थी और हवा के तेवर थे पानी का और इरादा था सूरज भी पहने थे मैं ने और तारे भी ओढ़े थे दिन में और मिरा पैराहन शब में और लबादा था उस ने मुझ को दरिया कर डाला ये उस की अज़्मत है मैं तो क़तरे की सूरत भी रहने पर आमादा था गठड़ी सर से क्या उतरी मैं अपनी चाल ही भूल गया तन कर चलता था मैं जब तक सर पर बोझ ज़ियादा था पर इक रोज़ मिरा बेटा मेरी मसनद पर आ बैठा जब तक मेरी माँ ज़िंदा थी मैं घर में शहज़ादा था अब 'सैफ़ी' की बातों में वो पहले जैसी बात कहाँ शहर में आने से पहले ये शख़्स निहायत सादा था