वहशत-ए-दिल ने किया है वो बयाबाँ पैदा सैकड़ों कोस नहीं सूरत-ए-इंसाँ पैदा सहर-ए-वस्ल करेगी शब-ए-हिज्राँ पैदा सुल्ब-ए-काफ़िर ही से होता है मुसलमाँ पैदा दिल के आईने में कर जौहर-ए-पिन्हाँ पैदा दर-ओ-दीवार से हो सूरत-ए-जानाँ पैदा ख़ार दामन से उलझते हैं बहार आई है चाक करने को किया गुल ने गरेबाँ पैदा निस्बत उस दस्त-ए-निगारीं से नहीं कुछ इस को ये कलाई तो करे पंजा-ए-मर्जां पैदा नश्शा-ए-मय में खुली दुश्मनी-ए-दोस्त मुझे आब-ए-अंगूर ने की आतिश-ए-पिन्हाँ पैदा बाग़ सुनसान न कर इन को पकड़ कर सय्याद बा'द मुद्दत हुए हैं मुर्ग़-ए-ख़ुश-इल्हाँ पैदा अब क़दम से है मिरे ख़ाना-ए-ज़ंजीर आबाद मुझ को वहशत ने किया सिलसिला-जुम्बाँ पैदा रो के आँखों से निकालूँ में बुख़ार-ए-दिल को कर चुके अब्र-ए-मिज़ा भी कहीं बाराँ पैदा नारा-ज़न कुंज-ए-शहीदाँ में हो बुलबुल की तरह आब-ए-आहन ने किया है ये गुलिस्ताँ पैदा नक़्श उन का न किसी ला'ल से लब पर बैठा मेरे मुँह में हुए थे किस लिए दंदाँ पैदा ख़ौफ़ ना-फ़हमी-ए-मर्दुम से मुझे आता है गाव ख़र होने लगे सूरत-ए-इंसाँ पैदा रूह की तरह से दाख़िल हो जो दीवाना है जिस्म-ए-ख़ाकी समझ इस को जो हो ज़िंदाँ पैदा बे-हिजाबों का मगर शहर है अक़्लीम-ए-अदम देखता हूँ जिसे होता है वो उर्यां पैदा इक गुल ऐसा नहीं होवे न ख़िज़ाँ जिस की बहार कौन से वक़्त हुआ था ये गुलिस्ताँ पैदा मोजिद उस की है सियह-रोज़ी हमारी 'आतिश' हम न होने तो न होती शब-ए-हिज्राँ पैदा