वहशत-ए-ग़म में अचानक तिरे आने का ख़याल जैसे नादार को गुम-गश्ता ख़ज़ाने का ख़याल इस मोहब्बत में हदफ़ कोई भी बन सकता है इस में रक्खा नहीं जाता है निशाने का ख़याल वो कबूतर तो उसी दिन से मिरे जाल में है जब उसे पहले-पहल आया था दाने का ख़याल मैं किनारों को कभी ध्यान में लाता ही नहीं लुत्फ़ देता है मुझे डूबते जाने का ख़याल मरने देता नहीं मैं बादिया-गर्दी का रिवाज मैं नए इश्क़ में लाता हूँ पुराने का ख़याल ऐ ख़ुदा मेरे मुक़द्दर में वो सज्दा लिख दे जिस में आए न मुझे सर को उठाने का ख़याल