वज्द हो बुलबुल-ए-तस्वीर को जिस की बू से उस से गुल-रंग का दा'वा करे फिर किस रू से शम्अ' के रोने पे बस साफ़ हँसी आती है आतिश-ए-दिल कहीं कम होती है चार आँसू से एक दिन वो था कि तकिया था किसी का बाज़ू अब सर उठता ही नहीं अपने सर-ए-ज़ानू से नज़्अ' में हूँ मिरी मुश्किल करो आसाँ यारों खोलो तावीज़-ए-शिफ़ा जल्द मिरे बाज़ू से शोख़ी-ए-चश्म का तू किस की है दीवाना 'अनीस' आँखें मलता है जो यूँ नक़्श-ए-कफ़-ए-आहू से