वज्द करती इक दुआ कच्चे मकानों से उठी रौशनी तस्बीह के रंगीन दानों से उठी सुर्ख़ आफ़त से मुज़य्यन तख़्ता-ए-गुल की सहर शब को नारंजी क़यामत शम्अ-दानों से उठी सब्ज़ा-ओ-गुल सब अचानक नीलगूँ होने लगे यक-ब-यक जब ज़र्द माटी आसमानों से उठी लाद लाने के लिए सरसब्ज़ अंगूरों का रस हुक्म आते ही मगस छत्ते के ख़ानों से उठी मैं सुख़न रब-ए-अहद के फ़ज़्ल से करने लगा इस्तिआरों की चमक मेरे ख़ज़ानों से उठी घंटियाँ नाक़ूस ताशे सब गुलाब-ए-सुब्ह हैं पर सहर-ख़ेज़ी की ख़ुशबू बस अज़ानों से उठी