वज्ह-ए-तस्कीन-ए-जुनूँ वस्ल-ए-निगाराँ भी नहीं इश्क़ आसाँ है मगर इस क़दर आसाँ भी नहीं हर तजल्ली के लिए ज़र्फ़-ए-नज़र है दरकार जल्वा अर्ज़ां है मगर इस क़दर अर्ज़ां भी नहीं जाने क्या सोच के हर राह में रुक जाता हूँ उस से मिलने का किसी मोड़ पे इम्काँ भी नहीं हर नफ़स खींच रहा है कोई रग रग से लहू और नश्तर कोई पैवस्त-ए-रग-ए-जाँ भी नहीं क़ाफ़िले हैं कि गुज़रते ही चले जाते हैं मंज़िलें हैं कि किसी सम्त नुमायाँ भी नहीं गुल का क्या ज़िक्र कि ऐ दोस्त मिरे दामन पर एक मुद्दत से किसी ख़ार का एहसाँ भी नहीं कौन समझेगा मिरे ज़र्फ़-ए-जुनूँ की वुसअ'त मैं परेशाँ हूँ मिरा हाल परेशाँ भी नहीं तू ये इल्ज़ाम मिरे ज़र्फ़-ए-जुनूँ पर न तराश इश्क़ काफ़िर भी नहीं इश्क़ मुसलमाँ भी नहीं 'शोर' उठा दूँ मैं गुल-ओ-लाला के पर्दे लेकिन याँ कोई महरम-ए-असरार-ए-गुलिस्ताँ भी नहीं