वजूद का इंहिसार गो ख़ाक पर नहीं था मगर मैं अपनी ज़मीं से बे-ख़बर नहीं था अजब तरह का तिलिस्म था इस मफ़ारिक़त में बदन लरज़ता था और आँखों में डर नहीं था लहू से मैं ने दिए की लौ सरफ़राज़ रक्खी वहाँ जहाँ पर हवाओं का भी गुज़र नहीं था मगर बहुत देर बाद जा कर ख़बर हुई थी वो मेरे हमराह था मिरा हम-सफ़र नहीं था सो मैं ने आख़िर लरज़ता पत्ता हदफ़ बनाया कि वो परिंदा तो आज भी शाख़ पर नहीं था