वजूद उस का कभी भी न लुक़्मा-ए-तर था वो हर निवाले में दाँतों के बीच कंकर था अलग अलग थे दिल ओ ज़ेहन बद-नसीबों के अजीब बात है हर धड़ पे ग़ैर का सर था न जाने हम से गिला क्यूँ है तिश्ना-कामों को हमारे हाथ में मय थी न दौर-ए-साग़र था लहूलुहान ही कर देता पा-ए-लग़्ज़िश को सुबूत देता कि वो रास्ते का पत्थर था बहुत ही ख़ूब था वो इंदिमाल से पहले कि ज़ख़्म-ए-ताज़ा तो दाग़-ए-सियह से बेहतर था क़रीब ख़त्म था गुलशन का कारोबार 'ज़हीर' रग-ए-गुलू को मगर इंतिज़ार-ए-ख़ंजर था