वक़ार दे के कभी बे-वक़ार मत करना हमें ख़ुदा के लिए शर्मसार मत करना निकलना जब कभी ले कर चराग़ बस्ती में अँधेरे घर भी मिलेंगे शुमार मत करना उसी का आज भी हम इंतिज़ार करते हैं जो कह गया था मिरा इंतिज़ार मत करना ये माना आज ज़माना है बेवफ़ाई का मगर तुम ऐसा चलन इख़्तियार मत करना सफ़र के मारे हुए आसमान के पंछी सुकूँ से बैठे हैं उन का शिकार मत करना दिल इज़्तिराब की हद से गुज़र गया ऐ दोस्त नया अब और कोई मुझ पे वार मत करना कहीं बिखर के न रह जाए ग़म फ़ज़ाओं में क़बा-ए-गुंचा-ए-दिल तार-तार मत करना मिरी ख़ता को करम की रिदा उढ़ा देना मुझे ज़माने की नज़रों में ख़्वार मत करना जब इख़्तिलाफ़ में सर को उठाए हों मौजें तो ऐ 'गुहर' कभी दरिया को पार मत करना