वक़्त आख़िर ले गया वो शोख़ियाँ वो बाँकपन फूल से चेहरे थे कितने और थे नाज़ुक बदन लोग रखते हैं दिलों में आतिश-ए-बुग़्ज़-ओ-हसद और फिर करते हैं शिकवा जल रहा है तन बदन चल पड़े जब जानिब-ए-मंज़िल तो फिर ऐ हम-सफ़र क्या सफ़र की मुश्किलें क्या दूरियाँ कैसी थकन हम नहीं तोड़ेंगे अपना इत्तिफ़ाक़-ओ-इत्तिहाद कर चुके हैं फ़ैसला ये अब सभी अहल-ए-वतन उन की साज़िश है कि बस नाम-ए-वफ़ा मिटता रहे मेरी कोशिश है फले-फूले वफ़ाओं का चलन जश्न होगा फिर वफ़ा का दोस्ती का एक दिन फिर सजेगी प्यार के एहसास की इक अंजुमन जो भी हैं 'शायान' अहल-ए-ज़र्फ़ उन को ख़ौफ़ क्या उन के आगे सर-निगूँ हैं वक़्त के दार-ओ-रसन