वक़्त के रेगज़ार से निकले मर गए तो शुमार से निकले क्या ज़रूरी है रौशनी के लिए चाँद ही ज़ुल्फ़-ए-यार से निकले वास्ता था किसी मोहब्बत का गुल तह-ए-ख़ार-ज़ार से निकले ख़ूब गुज़रा था दिन जुदाई का हम शब-ए-इंतिज़ार से निकले इश्क़ ठहरा हुआ है रस्ते में हुस्न भी इंतिशार से निकले आइना जब बना लिया 'आसिम' अक्स क़ुर्ब-ओ-जवार से निकले