वक़्त मजबूर अपनी आदत से बदले लम्हों को अपनी चाहत से कब रहा शौक़ जीतने का हमें हारते ही रहे हैं क़िस्मत से उस की ही बे-रुख़ी का है अंजाम हम हुए दूर उस की उल्फ़त से दर्द ग़म रंज आहें ख़ामोशी और पाया है क्या मोहब्बत से उस ने कर ली ही ख़ुद-कुशी आख़िर था परेशाँ वो अपनी ग़ुर्बत से दो निगाहों से दाँव खेला फिर ले गए दिल को वो शरारत से हम को बनना ज़माने के जैसा आ गए तंग हम शराफ़त से 'सारथी' तू भी अब बदल ख़ुद को सीख कुछ तो बदलती क़ुदरत से