वक़्ती ये हिसाब-ए-ज़ुल्म कब है तारीख़ के हाफ़िज़े में सब है हम पहले भी कम दुखी नहीं थे ये हाल कभी न था जो अब है जानों को लगा शदीद आज़ार संगीन ही कुछ इस का सबब है वो रुत है न अब वो हम-नवा हैं अब नौहा-ए-ख़ू-गरी ही कार-ए-लब है एहसास के बंद टूटते हैं लेकिन ये शिकस्तगी अजब है दिल जलता है कुछ खुले भी आख़िर कब तक ये तमाज़त-ए-ग़ज़ब है क्या मौत ही अब है चारा-ए-जाँ हर लम्हा-ए-उम्र ख़ूँ-तलब है