वक़्त की शक्ल में चलता है जो सूरज ही तो है रात को दिन में बदलता है जो सूरज ही तो है हैं अयाँ रेत के दरियाओ में परतव उस के क़तरा-ए-आब में ढलता है जो सूरज ही तो है ग़ैज़ ये किस का है पानी के अज़ाबों में निहाँ कोहसारों को निगलता है जो सूरज ही तो है चेहरा-ए-सुब्ह भी वो शाम भी वो रात भी वो रोज़ लम्हों में पिघलता है जो सूरज तो है चौदहवीं शब को उजालों से सजा देता है कौन बन के महताब निकलता है जो सूरज ही तो है रौशनी ही तो हर इक ज़ीस्त का मसदर है 'मिराक़' बिन दिखे साँसों में जलता है जो सूरज ही तो है