वरक़ वरक़ सा बिखरता किताब-ए-ग़म जैसा मिलेगा शहर में शायद ही कोई हम जैसा हर एक शब-ए-गुज़िश्ता को दावतें दे कर मनाए जश्न-ए-हसीं कोई जश्न-ए-ग़म जैसा कभी वो अंजुमन-ए-दिल कभी वो सिर्फ़ सुकूत कभी वो हद से तजावुज़ कभी वो कम जैसा गले लगा के जिसे ख़ूब रोए ख़ूब हँसे कभी मिला ही नहीं कोई हम से हम जैसा मैं एक प्यास का सहरा अज़ीम ला-महदूद वो इक तवील समुंदर मगर है कम जैसा वो दूर दूर का मंज़र मैं लम्हा लम्हा तलाश वो फ़ासलों की तरह मैं क़दम क़दम जैसा हुज़ूर-ए-इश्क़ की इस बारगाह में 'साजिद' हमें ख़िताब मिला है जनाब-ए-ग़म जैसा