वस्ल में ज़िक्र ग़ैर का न करो ख़ुश किया है तो फिर ख़फ़ा न करो ज़ुल्फ़ों पर मुझ को शेफ़्ता न करो इन बलाओं में मुब्तला न करो मेरी इतनी तो बात मानो भला बात अग़्यार से किया न करो मिलने दूँगा न ग़ैर से तुम को करो मुझ से मिलाप या न करो मर भी जाऊँ कहीं ये रोग मिटे ऐ तबीबों मिरी दवा न करो मुँह छुपाना ही है अगर मंज़ूर मेरे आँखों-तले फिरा न करो ऐ गुल इन दिनों रोओगे खिलखिला कर बहुत हँसा न करो बोसा लेने दो कुछ तो हो तक़्सीर हदफ़-ए-तीर बे-ख़ता न करो जान सदक़े करूँ जो क़द्र करो दिल तुम्हें दूँ अगर दग़ा न करो कभी फ़रियादतन सुनो मेरी कौन कहता है तुम जफ़ा न करो ग़ैर पर क्यूँ निगाह करते हो मुझ को इस तीर का निशाना करो दो-घड़ी के लिए हम आए हैं तल्ख़ बातों से बे-मज़ा न करो एक पुर्ज़े पे लिख के ये दो-हर्फ़ दोस्तो यार को रवाना करो जल्द आओ कि दम निकलता है मुझ को पीटो अगर बहाना करो 'बहर' शाकिर रहो मुक़द्दर पर कस-ओ-ना-कस से इल्तिजा न करो