वास्ते जितने थे सब वहम-ओ-यक़ीं ने छोड़े आसमाँ सर से हटा पाँव ज़मीं ने छोड़े कौन था क्यूँ न रहा कैसे करें उस का पता अपने दुख भी तो मकाँ में न मकीं ने छोड़े ख़िल्क़त-ए-शहर न मानी मिरा मुल्हिद होना वर्ना शोशे तो बहुत मुफ़्ती-ए-दीं ने छोड़े हम न आग़ाज़ के मुजरिम थे न अंजाम के हैं हाथ में हाथ लिए तुम ने तुम्हीं ने छोड़े ख़्वाब का एक परिंदा भी न ता'बीर हुआ जिस क़दर तीर गुमाँ में थे यक़ीं ने छोड़े वस्ल के सैकड़ों वा'दों से भी मद्धम न हुए दिल पे जो नक़्श तिरी एक नहीं ने छोड़े पाँव जमते हैं कहीं पर न 'नज़र' रुकती है हाथ जब से मिरे इक दस्त-ए-हसीं ने छोड़े