वो अबरू याद आते हैं वो मिज़्गाँ याद आते हैं न पूछो कैसे कैसे तीर-ओ-पैकाँ याद आते हैं वो जिन के तहत झुक जाता था सर असनाम के आगे वही भूले हुए अहकाम-ए-यज़्दाँ याद आते हैं जो अक्सर बार-वर होने से पहले टूट जाते थे वही ख़स्ता शिकस्ता अहद-ओ-पैमाँ याद आते हैं वो मरमर की तरह शफ़्फ़ाफ़ और हँसते हुए आ'ज़ा हयात-ए-जाविदाँ के साज़-ओ-सामाँ याद आते हैं गुमाँ होता है वहशी निकहतों ने भेंच डाला है कुछ इतने बे-महाबा सुंबुलिस्ताँ याद आते हैं वो गुल-अंदाज़ जिन का ख़ल्क़ सरमाया था जीने का वो बन बन कर चराग़-ए-महफ़िल जाँ याद आते हैं ख़याल आता है जब भी दिलबरों की हम-नशीनी का तलातुम रंग के ख़ुशबू के तूफ़ाँ याद आते हैं उड़ी फिरती थी बोसों की चटक जिन की फ़ज़ाओं में वो एहसासात में डूबे शबिस्ताँ याद आते हैं फ़क़ीह-ओ-शैख़ के ज़ेहनों में बुत होंगे ख़ुदाओं के मैं इंसाँ हूँ मुझे तो सिर्फ़ इंसाँ याद आते हैं पियाला शाम को रखता हूँ जब भी मैं 'अदम' आगे जवाँ हम-जोलियों के रू-ए-ख़ंदाँ याद आते हैं