वो आँखें ज़हर ऐसा बो गई हैं ज़मीनें ज़र्द सहरा हो गई हैं अँधेरे गिर रहे हैं आसमाँ से फ़ज़ा की वुसअतें भी सो गई हैं हमेशा एक जा पाता हूँ ख़ुद को हदें मंज़िल की शायद खो गई हैं चमक क्या रेत की ज़र्रों में होगी जो सोना था वो मौजें धो गई हैं पिघलते देख के सूरज की गर्मी अभी मासूम किरनें रो गई हैं