वो आरज़ू न रही और वो मुद्दआ न रहा हमारे आप के हरगिज़ वो माजरा न रहा सर-ए-नियाज़ रहा ज़ेर-ए-पा-ए-याद मुदाम हिना की तरह मैं क़दमों से कब लगा न रहा दिल आश्नाई को चाहे किसी की ख़ाक मिरा कि आश्ना जो हुआ था वो आश्ना न रहा हमेशा जिस से पहुँचता रहे था दिल को अलम हज़ार शुक्र कि वो दर्द-ए-बे-दवा न रहा जब आप हम ने बुताँ तर्क आश्नाई की किसी भी तरह का तुम से हमें गिला न रहा गुलों के चेहरों पे ज़र्दी सी फिर रही है तमाम गई बहार वो मौसम का इब्तिदा न रहा सफ़ा-ए-सीना से फिसला न कब दिल-ए-आशिक़ कि चाह-ए-नाफ़ में वो ख़ूँ-गिरफ़्ता जा न रहा हज़ार हर्फ़-ए-ज़बाँ-सोज़ दरमियाँ आए है सच तो ये कि मोहब्बत में वो मज़ा न रहा चमन को छोड़ हम ऐसे चले गए सू-ए-दश्त कि नाम को भी फिर अंदेशा-ए-सबा न रहा ये किस के चाह-ए-ज़नख़दाँ की फ़िक्र में डूबा तमाम रात जो ज़ानू से सर जुदा न रहा अजब न जान गर आ जाए सल्तनत को ज़वाल किसी के सर पे सदा साया-ए-हुमा न रहा निशान-ए-'मुसहफ़ी'-ए-ख़स्ता पूछते क्या हो वो ख़ाक-ए-राह तो अब मिस्ल-ए-नक़्श-ए-पा न रहा