वो बात बात पे कहता है बेवफ़ा मुझ को सिखा दिया उन्हीं बातों ने बोलना मुझ को मैं अपनी ज़ात में गुम हो गया था सब से दूर तिरी नज़र से मिला है मिरा पता मुझ को हक़ीक़तों से नज़र कब तलक चुराउँगा कि बार बार दिखाती हैं आइना मुझ को वो चाहता था कि मैं उस की इक झलक देखूँ मैं सोचता था कहीं से वो दे सदा मुझ को भुलाए बैठा था जिस को मैं एक मुद्दत से न जाने कैसे वो फिर याद आ गया मुझ को मिरे ख़िलाफ़ 'क़मर' जाने किस की साज़िश है बनाया जाता है हर रोज़ मसअला मुझ को