वो बे-रुख़ी कि तग़ाफ़ुल की इंतिहा कहिए ब-ईं-हमा उसे किस दिल से बे-वफ़ा कहिए ग़म-ए-हयात ओ ग़म-ए-काएनात से हट कर किसी की क़ामत ओ गेसू का माजरा कहिए वो मुन्फ़इल हो कि हो मुश्तइल बला से मगर कभी तो हाल-ए-दिल-ए-ज़ार-ए-बरमला कहिए बताइए कफ़-ए-महबूब दस्त-ए-क़ातिल को लहू के दाग़ को गुल-कारी-ए-हिना कहिए अदब का है ये तक़ाज़ा कि उस की महफ़िल में सुकूत-ए-नाज़ को भी नग़्मा ओ सदा कहिए हम अपने दौर में जिस बाँकपन से ज़िंदा हैं उसे हम अहल-ए-मोहब्बत का हौसला कहिए 'सुरूर' हज़रत-ए-ग़ालिब के रंग में भी कभी हिकायत-ए-करम-ए-चश्म-ए-सुर्मा-सा कहिए