वो भी मिलने नई पोशाक बदल कर आया मैं जो कल पैरहन-ए-ख़ाक बदल कर आया ऐ ज़मीं-ज़ाद तिरी रिफ़अतें छूने के लिए तुझ तलक मैं कई अफ़्लाक बदल कर आया उस को रास आई है ये बज़्म-ए-जहाँ जो भी यहाँ अपना पैमाना-ए-इदराक बदल कर आया इश्क़ में कोई तकल्लुफ़ की ज़रूरत तो नहीं फिर वो क्यूँ दीदा-ए-नमनाक बदल कर आया हम से कर बे-सर-ओ-सामानी-ए-हिजरत पे सवाल उस से मत पूछ जो इम्लाक बदल कर आया आँसुओं से न बदल पाया रुख़-ए-बाद 'जमाल' पर मिज़ाज-ए-ख़स-ओ-ख़ाशाक बदल कर आया