वो बुत बोल उट्ठे किसी बात में ख़ुदा से ये माँगा मुनाजात में टपकता बहुत ख़ाना-ए-चश्म है मकाँ बैठ जाता है बरसात में चमन में है गुलचीं का खटका लगा न सय्याद सा हो कहीं घात में वहाँ वाज़ का शोर मस्जिद में है यहाँ हा-ओ-हू है ख़राबात में ये दावत अदावत हुई ऐ 'वक़ार' कि हो ग़ैर दाख़िल मुदारात में