वो चराग़-ए-जाँ कि चराग़ था कहीं रहगुज़ार में बुझ गया मैं जो इक शो'ला-नज़ाद था हवस-ए-क़रार में बुझ गया मुझे क्या ख़बर थी तिरी जबीं की वो रौशनी मिरे दम से थी मैं अजीब सादा-मिज़ाज था तिरे ए'तिबार में बुझ गया मुझे रंज है कि मैं मौसमों की तवक़्क़ुआत से कम रहा मिरी लौ को जिस में अमाँ मिली मैं उसी बहार में बुझ गया वो जो लम्स मेरी तलब रहा वो झुलस गया मिरी खोज में सो मैं उस की ताब न ला सका कफ़-ए-दाग़-दार में बुझ गया जिन्हें रौशनी का लिहाज़ था जिन्हें अपने ख़्वाब पे नाज़ था मैं उन्ही की सफ़ में जला किया मैं उसी क़तार में बुझ गया