वो दश्त-ए-तीरगी है कि कोई सदा न दे साया भी मेरे जिस्म का मुझ को पता न दे ना-आगही की रात भी कितनी लतीफ़ थी ये आगही की धूप है चेहरा जला न दे ख़्वाबों का इक लतीफ़ सा है अक्स ज़ेहन पर बाद-ए-सुमूम-ए-वक़्त इसे भी मिटा न दे चश्म-ए-ग़ज़ाल झील का मंज़र हसीन मौत मेरी तरफ़ न देख मुझे ये सज़ा न दे दिल से भी उस निगाह का जादू छुपा लिया नादाँ है सादगी में कहीं कुछ बता न दे शाइस्तगी का जब्र कि रोया न जा सका चुप-चाप दिल की आग बदन को घुला न दे इक पल को भी सुकून न दे ज़िंदगी 'शमीम' और भागना भी चाहूँ तो ये रास्ता न दे