वो ग़म दे रहे हैं ख़ुशी हो रही है हक़ीक़त में अब आशिक़ी हो रही है अभी मोहतसिब मय-कदे में न आएँ ठहर जाइए मय-कशी हो रही है मोहब्बत में कितने ही मंसूर गुम हैं ख़ुदी भी यहाँ बे-ख़ुदी हो रही है न ज़ौक़-ए-तलब है न एहसास-ए-मंज़िल ये जीना है या ख़ुद-कुशी हो रही है कोई जुरअतें देखे अहल-ए-हवस की मोहब्बत से भी दिल लगी हो रही है ये मय-ख़ाने में किस का पैमाना छलका बहुत दूर तक रौशनी हो रही है न पूछो यगानों की बेगानगी को ये सब दोस्त में दोस्ती हो रही है अजब आलम-ए-'कैफ़' है बज़्म-ए-जानाँ निगाहों से भी बंदगी हो रही है