वो ग़म क़ुबूल है जो तिरी चश्म से मिले हम को हुनर तमाम उसी ज़ख़्म से मिले रौशन है सारी ज़िंदगी इस दिल की आग से और दिल को आँच इक सुख़न-ए-गर्म से मिले जब रंग-ओ-नूर-ओ-नग़्मा नहीं इख़्तियार में इक ए'तिबार-ए-शौक़ ही उस बज़्म से मिले दिल को लपेट लेता है इक रेशमीं ख़याल जब भी निगाह उस निगह-ए-नर्म से मिले इस दिल के सारे ख़्वाब मोहब्बत के सब गुलाब इक शे'र से खिले कभी इक नज़्म से मिले हमराह चल रहा था फ़लक भी तमाम शब यूँ अहल-ए-ख़ाक-ओ-ख़्वाब मह-ओ-नज्म से मिले दिल में तो उन की आब कोई देखता न था दुर्र-ए-समीन थे जो दर-चश्म से मिले