वो हाल है कि तलाश-ए-नजात की जाए किसी फ़क़ीर-ए-दुआ-गो से बात की जाए ये शहर कैसा ख़ुश-औक़ात था और अब क्या है जो दिन भी निकले तो वहशत न रात की जाए कोई तो शक्ल-ए-गुमाँ हो कोई तो हीला-ए-ख़ैर किसी तरह तो बसर अब हयात की जाए घरों में वक़्त-गुज़ारी का अब है शुग़्ल ही क्या यही कि गुफ़्तुगू-ए-हादसात की जाए अगर यही है अब ईफ़ा-ए-अहद में पस-ओ-पेश तो ख़त्म रस्म-ओ-रह-ए-इल्तिफ़ात की जाए हुसूल-ए-फ़तह ग़रज़ हो तो क्या बजा है ये तौर तबाह उस के लिए काएनात की जाए मुहाल ही में कुछ आसूदगी बहाल करें कहाँ तक आरज़ू-ए-मुम्किनात की जाए कुछ ऐसे भी हैं तही-दस्त ओ बे-नवा जिन से मिलाएँ हाथ तो ख़ुशबू न हात की जाए