वो हुआ ही नहीं जो सोचा था मेरा हो कर भी कब वो मेरा था वो तसव्वुर के जाल में उलझा धुंध सा इक उदास चेहरा था हर घड़ी उस के घर का दरवाज़ा मेरी ख़ातिर खुला ही रहता था छीन ली उस ने मेरी बीनाई मैं ने इक ख़्वाब ही तो देखा था उस को भी लग गई ख़िज़ाँ की नज़र शाख़ पर आख़िरी जो पत्ता था रतजगे की थकी थकी आँखें सोचती हूँ वो कितना तन्हा था एक बरगद का पेड़ था उस पर एक आसेब था जो लटका था