वो हुए ऐसे मेहरबाँ मुझ पर बार होने लगा जहाँ मुझ पर कितनी शफ़्फ़ाफ़ ज़िंदगानी थी अब तो छाने लगा धुआँ मुझ पर उस ने आ कर न कुछ सफ़ाई दी क़िस्से होते रहे बयाँ मुझ पर गुल के मानिंद ये सरापा था जाने कब आ गई ख़िज़ाँ मुझ पर मेरे दम से चमन में रंगत थी रश्क करती थीं तितलियाँ मुझ पर मैं जहाँ से चली भी जाऊँ तो क्या करेगा कोई फ़ुग़ाँ मुझ पर जब भी उस ने सुनी न बात मिरी कितनी बातें हुईं अयाँ मुझ पर अब तो 'निकहत' नहीं है फूलों में फिर भी उठती हैं उँगलियाँ मुझ पर