वो ज़ख़्म फिर से हरा है निशाँ न था जिस का हुई है रात वो बारिश गुमाँ न था जिस का हवाएँ ख़ुद उसे साहिल पे ला के छोड़ गईं वो एक नाव कोई बादबाँ न था जिस का कशीद करता रहा हिजरतों से दर्द की मय कोई तो था कि कहीं हम-ज़बाँ न था जिस का इसी के दम से थी रौनक़ तमाम बस्ती में कि ख़ंदा-लब था मगर ग़म अयाँ न था जिस का जली तो यूँ कि हुआ राख अंग अंग मिरा अजीब आग थी कोई धुआँ न था जिस का