वो ज़र्रा जिस में इक आलम निहाँ था अदब का एक बहर-ए-बे-कराँ था वो नब्ज़-ए-वक़्त को पहचानता था वो रहबर था वो मीर-ए-कारवाँ था उसे आता था लफ़्ज़ों का बरतना ज़बाँ रखता था वो अहल-ए-ज़बाँ था उख़ुव्वत का था वो परचम उठाए न अपनी फ़िक्र न ख़ौफ़-ए-जहाँ था चटां का अज़्म धारे की रवानी झुका क़दमों पे उस के आसमाँ था जो सब चुप-चाप सह लेते हैं सदमे वो इन सब बे-ज़बानों की ज़बाँ था वतन उस की रग-ओ-जाँ में बसा था वो दिल-दिल्ली का ख़ुद हिन्दोस्ताँ था उसे ढूँडेगा अब 'राग़िब' ज़माना कि उस जैसा ज़माने में कहाँ था