वो ज़िम्मेदारी कितनी ख़ुशी से निभाई थी उस को सराई की ज़बाँ मैं ने सिखाई थी मैं ने जहाँ पे प्यास को सैराब कर दिया दरिया की एक लहर मिरे हाथ आई थी जंग-ए-अरब में छोड़ गए जब हिमायती कूफ़ा के इक जवाँ ने मिरी जाँ बचाई थी औरत से बहस करना समझता था बस हतक और नज़रियाती लड़की भी दिल में बसाई थी ईमान का हिसाब भी रखना पड़ा हमें ज़ाती भलाई में ही ख़ुदा की भलाई थी वादी में हर-सू उगने लगे पानियों के फूल चश्मे पे कोई हुस्न-भरी आ नहाई थी मैं ने चुने हैं अपनी ही मर्ज़ी के चंद फूल वर्ना तो मेरे हिस्से में पूरी ख़ुदाई थी शायद कि एक रात के बा'द और रात हो सपने में इक जुदाई के बा'द और जुदाई थी