वो जिस की दास्ताँ फैली दिल-ए-दीवाना मेरा था ज़बानें दुश्मनों की थीं मगर अफ़्साना मेरा था तड़पता हूँ कि इक साग़र किसी हातिम से मिल जाए ज़वाल-ए-आसमाँ देखो कभी मय-ख़ाना मेरा था बला की ख़ामुशी तारी थी हर-सू तेरी हैबत से सर-ए-महफ़िल जो गूँजा नारा-ए-मस्ताना मेरा था कटे यूँ तो हज़ारों सर वफ़ा की कर्बलाओं में तिरे नेज़े पे जो उभरा सर-ए-शाहाना मेरा था फ़क़ीह-ए-शहर को समझो कि हम पकड़े गए नाहक़ शराबें सब उसी की थीं बस इक पैमाना मेरा था बना है 'अर्श' वो मुंसिफ़ तो फिर ये भी कभी देखे हुआ है बंद जो मुझ पर वही वीराना मेरा था