वो जिसे दीदा-वरी कहते हैं हम उसे बे-बसरी कहते हैं नाम उस का है अगर बा-ख़बरी फिर किसे बे-ख़बरी कहते हैं ये अगर लुत्फ़-ओ-करम है तो किसे जौर-ओ-बे-दाद-गरी कहते हैं क्या इसी कार-ए-नज़र-बंदी को हुस्न की जल्वागरी कहते हैं गुल के औराक़ पे काँटों का गुमाँ क्या इसे ख़ुश-नज़री कहते हैं बहर-ए-बीमार दवा है न दुआ क्या इसे चारागरी कहते हैं कम किसी को ये ख़बर है कि किसे रंज-ए-बे-बाल-ओ-परी कहते हैं यास-ओ-हिरमाँ को ब-अल्फ़ाज़-ए-दिगर आह की बे-असरी कहते हैं नाम है वो भी जिगर-दारी का हम जिसे बे-जिगरी कहते हैं आप ख़ुद भी तो गुल-अंदामों को हूर कहते हैं परी कहते हैं फ़स्ल-ए-गुल ही तो है वो हम जिस को मौसम-ए-जामा-दरी कहते हैं इश्क़ में ऐन हुनर-मंदी है सब जिसे बे-हुनरी कहते हैं मुफ़्त की दर्द-सरी को हम भी मुफ़्त की दर्द-सरी कहते हैं आप से हम से बनी है न बने आप ख़ुश्की को तरी कहते हैं क्या कोई बात कभी अहल-ए-जुनूँ अज़-रह-ए-नाम-वरी कहते हैं हम पे ये भी है इक इल्ज़ाम कि हम दास्ताँ दर्द-भरी कहते हैं कोई ख़ुश हो कि ख़फ़ा हो 'हैरत' हम तो हर बात खरी कहते हैं