वो जो सब कुछ है उसे दूर बिठा रक्खा है ख़्वाहिशें हैं जिन्हें मा'बूद बना रक्खा है कुछ तो है तीरगी-ए-दिल में उजाले के लिए तू नहीं है तिरी यादों को बुला रक्खा है हर कोई अपने ही परतव में है सरगर्म-ए-सफ़र मैं ने माहौल को आईना दिखा रक्खा है उस का बातिन भी है ख़ुर्शीद-ए-क़यामत की तरह ये जो इक ताक़ में छोटा सा दिया रक्खा है एक लहज़ा मिरी तन्हाई में आ कर देखो मैं ने ज़िंदाँ में भरा शहर बसा रक्खा है सर-ए-दरबार जो पूछो तो मिरा जुर्म है ये मैं ने क्यों शहर में आँखों को खुला रक्खा है कभी दो बोल मोहब्बत के भी ऐ जान-ए-'सफ़ी' जब भी देखो तिरे होंटों पे लगा रक्खा है