वो कम-यक़ीं जो सवाद-ए-गुमाँ भी रहता है तमाम-उम्र किसी इम्तिहाँ में रहता है ये रूह-ओ-जिस्म का रिश्ता भी ख़ूब रिश्ता है कि जैसे कोई पराए मकाँ में रहता है जो तू नहीं मिरे हमराह तेरी याद सही कोई तो साथ मिरे दश्त-ए-जाँ में रहता है खुला ये चाँदनी शब में कि एक साया सा नदी के पार शिकस्ता-मकाँ में रहता है न उस में रंग-ए-वफ़ा का न इश्क़ की ख़ुश्बू ख़बर नहीं वो अभी किस जहाँ में रहता है रहे ज़बाँ पे कोई दास्तान-ए-हिज्र-ओ-विसाल वो एक शख़्स ही लफ़्ज़-ओ-बयाँ में रहता है मिरे दुखों की जिसे कुछ ख़बर नहीं 'ख़ावर' मिरे मकाँ के बराबर मकाँ में रहता है