वो लम्हा कि ख़ामोशी-ए-शब नग़्मा-सरा थी कानों पे गराँ दिल के धड़कने की सदा थी जिस मोड़ पे छोड़ी है सहारों की तमन्ना कहते हैं बड़ा क़हर वही लग़्ज़िश-ए-पा थी क्यूँ आज धुआँ बन के उफ़ुक़-ता-ब-उफ़ुक़ है इस साँस में कलियों के चटकने की सदा थी हर लम्हा-ए-बेताब ने ढूँडी हैं पनाहें गूँजी थी ख़मोशी तिरी आवाज़ तो क्या थी हर दिन के सहीफ़े पे तिरा नाम लिखा है हर शब की जबीं तेरा निशान-ए-कफ़-ए-पा थी क्या कहते कि होंटों पे बस इक हर्फ़-ए-वफ़ा था क्या कीजिए हर साँस जो ताज़ीर-ए-वफ़ा थी उठते हुए देखा है धुआँ आतिश-ए-गुल से क्या निकहत-ए-बर्बाद जले दिल की दुआ थी क्या जानिए मरना भी रवा है कि नहीं है तकवीन के लब पर मिरे जीने की दुआ थी