वो मिरे हिसाब में इंतिहा नहीं चाहता मगर एक मैं हूँ कि इब्तिदा नहीं चाहता मिरे सेहन पर खुला आसमान रहे कि मैं उसे धूप छाँव में बाँटना नहीं चाहता कभी खुल सके किसी ए'तिबार के दौर में मुझे चाहता है वो दिल से या नहीं चाहता कोई और भी हो चराग़ बज़्म-ए-हयात का सर-ए-ताक़ रक्खा हुआ दिया नहीं चाहता ये मिरे वजूद का मसअला भी अजीब है जो मैं चाहता हूँ वो दूसरा नहीं चाहता