वो नाज़ुक सा तबस्सुम रह गया वहम-ए-हसीं बन कर नुमायाँ हो गया ज़ौक़-ए-सितम चीन-ए-जबीं बन कर बहुत इतरा रही है रात ज़ुल्फ़-ए-अम्बरीं बन कर बहुत मग़रूर है नूर-ए-सहर रंग-ए-जबीं बन कर मिरी जामा-दरी ने राज़ ये खोला ज़माने पर ख़िरद धोके दिया करती है जैब ओ आस्तीं बन कर करम में भी मगर इक ग़म्ज़ा-ए-ख़ूँ-रेज़ शामिल था निगाहों की तरफ़ उट्ठी तो दिल की नुक्ता-चीं बन कर मिरी दीवानगी थी इक शरार-ए-आरज़ू दिल में बढ़ी तो दार पर रौशन हुई शम-ए-यक़ीं बन कर पयाम आते रहे अक्सर किसी महव-ए-तग़ाफ़ुल के अदा-ए-बर-मला बन कर निगाह-ए-शर्मगीं बन कर वो इक सज्दा न हो पाया जो बर्बाद-ए-हरम 'ताबाँ' जबीन-ए-शौक़ पर रौशन है पिंदार-ए-जबीं बन कर