वो निगाहों को जब बदलते हैं दिल सँभाले नहीं सँभलते हैं मंज़िलें दूर हैं कभी नज़दीक हर क़दम फ़ासले बदलते हैं कौन जाने कि इक तबस्सुम से कितने मफ़्हूम-ए-ग़म निकलते हैं न गुज़र इतनी कज-रवी से कि लोग तेरे नक़्श-ए-क़दम पे चलते हैं आग भी उन घरों को लगती है जिन घरों में चराग़ जलते हैं जब भी उठती है वो नज़र 'इक़बाल' शम्अ' की तरह दिल पिघलते हैं